वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले
मुझ से या-रब मिरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले
अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले
मैं तो उस सुब्ह-ए-दरख़्शाँ को तवंगर जानूँ
जो मिरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले
तू ग़नी है मगर इतनी हैं शराइत तेरी
वो मोहब्बत जो हमें रास न आई ले ले
ऐसा नादान ख़रीदार भी कोई होगा
जो तिरे ग़म के एवज़ सारी ख़ुदाई ले ले
अपने दीवान को गलियों में लिए फिरता हूँ
है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई ले ले
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
अपने बंदों से तो पिंदार-ए-ख़ुदाई ले ले
और क्या नज़्र करूँ ऐ ग़म-ए-दिलदार-ए-फ़राज़
ज़िंदगी जो ग़म-ए-दुनिया से बचाई ले ले
ग़ज़ल
वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबला-पाई ले ले
अहमद फ़राज़