हुजूम ऐसा कि राहें नज़र नहीं आतीं
नसीब ऐसा कि अब तक तो क़ाफ़िला न हुआ
अहमद फ़राज़
इक तो हम को अदब आदाब ने प्यासा रक्खा
उस पे महफ़िल में सुराही ने भी गर्दिश नहीं की
अहमद फ़राज़
इक ये भी तो अंदाज़-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-जाँ है
ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यूँ नहीं देते
अहमद फ़राज़
इस अहद-ए-ज़ुल्म में मैं भी शरीक हूँ जैसे
मिरा सुकूत मुझे सख़्त मुजरिमाना लगा
अहमद फ़राज़
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की
अहमद फ़राज़
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अपने ही अहद में एक शख़्स फ़साना बन जाए
अहमद फ़राज़
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ
अहमद फ़राज़