साँस की आँच ज़रा तेज़ करो
काँच का जिस्म पिघल जाने दो
लाम ख़ाली है उसे मत छेड़ो
नून के पेट में नुक़्ता देखो
रात के पर्दे उलटते जाओ
चाँद का जिस्म बरहना भी हो
सर उठाओ न कनार-ए-दरिया
मौज को सर से गुज़र जाने दो
ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ लचक जाएगी
फल से भरपूर तो हो लेने दो
आँख खुलते ही ये आवाज़ आई
चोर घुस आया है घर में पकड़ो
उँगलियाँ चाटते रह जाओगे
तुम कभी अपना लहू चख देखो
मौत सड़कों पे फिरा करती है
घर से निकलो तो सँभल कर निकलो
कौन अब शेर कहे नज़्म लिखे
शहर ही छोड़ गई जब ज़ेबो
तुम को दावा है सुख़न-फ़हमी का
जाओ 'ग़ालिब' के तरफ़-दार बनो
कल वो 'आदिल' से ये फ़रमाते थे
शाएरी छोड़ के शादी कर लो
ग़ज़ल
साँस की आँच ज़रा तेज़ करो
आदिल मंसूरी