EN اردو
हमला-आवर कोई अक़ब से है | शाही शायरी
hamla-awar koi aqab se hai

ग़ज़ल

हमला-आवर कोई अक़ब से है

साक़ी फ़ारुक़ी

;

हमला-आवर कोई अक़ब से है
ये तआक़ुब में कौन कब से है

शहर में ख़्वाब का रिवाज नहीं
नींद की साज़-बाज़ सब से है

लोग लम्हों में ज़िंदा रहते हैं
वक़्त अकेला इसी सबब से है

हम-ख़यालों के मशरबों का ज़वाल
ख़ौफ़ से जब्र से तलब से है

शोला-बारों के ख़ानदान से हूँ
रूह में रौशनी नसब से है