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हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया | शाही शायरी
har ek marhala-e-dard se guzar bhi gaya

ग़ज़ल

हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया

साबिर ज़फ़र

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हर एक मरहला-ए-दर्द से गुज़र भी गया
फ़िशार-ए-जाँ का समुंदर वो पार कर भी गया

ख़जिल बहुत हूँ कि आवारगी भी ढब से न की
मैं दर-ब-दर तो गया लेकिन अपने घर भी गया

ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है कोशिश करो हरा ही रहे
कसक तो जा न सकेगी अगर ये भर भी गया

गुज़रते वक़्त की सूरत हुआ न बेगाना
अगर किसी ने पुकारा तो मैं ठहर भी गया