वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
बहुत ख़याल रखा था बहुत वफ़ा की थी
सुना है इन दिनों हम-रंग हैं बहार और आग
ये आग फूल हो मैं ने बहुत दुआ की थी
नहीं था क़ुर्ब में भी कुछ मगर ये दिल मिरा दिल
मुझे न छोड़ बहुत मैं न इल्तिजा की थी
सफ़र में कश्मकश-ए-मर्ग-ओ-ज़ीस्त के दौरान
न जाने किस ने मुझे ज़िंदगी अता की थी
समझ सका न कोई भी मिरी ज़रूरत को
ये और बात कि इक ख़ल्क़ इश्तिराकी थी
ये इब्तिदा थी कि मैं ने उसे पुकारा था
वो आ गया था 'ज़फ़र' उस ने इंतिहा की थी
ग़ज़ल
वो क्यूँ न रूठता मैं ने भी तो ख़ता की थी
साबिर ज़फ़र