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जिगर मुरादाबादी शायरी | शाही शायरी

जिगर मुरादाबादी शेर

147 शेर

अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे

जिगर मुरादाबादी




अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया

जिगर मुरादाबादी




ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक
ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है

जिगर मुरादाबादी




ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था

जिगर मुरादाबादी




अल्लाह अगर तौफ़ीक़ न दे इंसान के बस का काम नहीं
फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत आम सही इरफ़ान-ए-मोहब्बत आम नहीं

जिगर मुरादाबादी




अल्लाह-रे चश्म-ए-यार की मोजिज़-बयानियां
हर इक को है गुमाँ कि मुख़ातब हमीं रहे

जिगर मुरादाबादी




अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
हम वो नहीं कि जिन को ज़माना बना गया

जिगर मुरादाबादी




बहुत हसीन सही सोहबतें गुलों की मगर
वो ज़िंदगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे

जिगर मुरादाबादी




बैठे हुए रक़ीब हैं दिलबर के आस-पास
काँटों का है हुजूम गुल-ए-तर के आस-पास

जिगर मुरादाबादी