नक़ाब-ए-हुस्न-ए-दो-आलम उठाई जाती है 
मुझी को मेरी तजल्ली दिखाई जाती है 
क़दम क़दम मिरी हिम्मत बढ़ाई जाती है 
नफ़स नफ़स तिरी आहट सी पाई जाती है 
वो इक नज़र जो ब-मुश्किल उठाई जाती है 
वही नज़र रग-ओ-पै में समाई जाती है 
सुकूँ है मौत यहाँ ज़ौक़-ए-जुस्तुजू के लिए 
ये तिश्नगी वो नहीं जो बुझाई जाती है 
ख़ुदा वो दर्द-ए-मोहब्बत हर एक को बख़्शे 
कि जिस में रूह की तस्कीन भी पाई जाती है 
वो मय-कदा है तिरी अंजुमन ख़ुदा रक्खे 
जहाँ ख़याल से पहले पिलाई जाती है 
तिरे हुज़ूर ये क्या वारदात-ए-क़ल्ब है आज 
कि जैसे चाँद पे बदली सी छाई जाती है 
तुझे ख़बर हो तो इतनी न फ़ुर्सत-ए-ग़म दे 
कि तेरी याद भी अक्सर सताई जाती है 
वो चीज़ कहते हैं फ़िरदौस-ए-गुमशुदा जिस को 
कभी कभी तिरी आँखों में पाई जाती है 
क़रीब मंज़िल-ए-आख़िर है अल-फ़िराक़ 'जिगर' 
सफ़र तमाम हुआ नींद आई जाती है
 
        ग़ज़ल
नक़ाब-ए-हुस्न-ए-दो-आलम उठाई जाती है
जिगर मुरादाबादी

