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किया तअज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे | शाही शायरी
kiya tajjub ki meri ruh-e-rawan tak pahunche

ग़ज़ल

किया तअज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे

जिगर मुरादाबादी

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किया तअज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे
पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे

जब हर इक शोरिश-ए-ग़म ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ तक पहुँचे
फिर ख़ुदा जाने ये हंगामा कहाँ तक पहुँचे

आँख तक दिल से न आए न ज़बाँ तक पहुँचे
बात जिस की है उसी आफ़त-ए-जाँ तक पहुँचे

तू जहाँ पर था बहुत पहले वहीं आज भी है
देख रिंदान-ए-ख़ुश-अन्फ़ास कहाँ तक पहुँचे

जो ज़माने को बुरा कहते हैं ख़ुद हैं वो बुरे
काश ये बात तिरे गोश-ए-गिराँ तक पहुँचे

बढ़ के रिंदों ने क़दम हज़रत-ए-वाइज़ के लिए
गिरते पड़ते जो दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ तक पहुँचे

तू मिरे हाल-ए-परेशाँ पे बहुत तंज़ न कर
अपने गेसू भी ज़रा देख कहाँ तक पहुँचे

उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे

इश्क़ की चोट दिखाने में कहीं आती है
कुछ इशारे थे कि जो लफ़्ज़-ओ-बयाँ तक पहुँचे

जल्वे बेताब थे जो पर्दा-ए-फ़ितरत में 'जिगर'
ख़ुद तड़प कर मिरी चश्म-ए-निगराँ तक पहुँचे