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जाँ निसार अख़्तर शायरी | शाही शायरी

जाँ निसार अख़्तर शेर

28 शेर

फ़ुर्सत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो की अभी उम्र पड़ी है यारो

जाँ निसार अख़्तर




दिल्ली कहाँ गईं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं

जाँ निसार अख़्तर




दिल को हर लम्हा बचाते रहे जज़्बात से हम
इतने मजबूर रहे हैं कभी हालात से हम

जाँ निसार अख़्तर




देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मंदिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

जाँ निसार अख़्तर




और क्या इस से ज़ियादा कोई नर्मी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तिरे गालों की तरह

जाँ निसार अख़्तर




अशआ'र मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उन को सुनाने के लिए हैं

जाँ निसार अख़्तर




अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

जाँ निसार अख़्तर




आज तो मिल के भी जैसे न मिले हों तुझ से
चौंक उठते थे कभी तेरी मुलाक़ात से हम

जाँ निसार अख़्तर




आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो

जाँ निसार अख़्तर