निगाह-ए-आरज़ू-आमोज़ का चर्चा न हो जाए
शरारत सादगी ही में कहीं रुस्वा न हो जाए
उन्हें एहसास-ए-तमकीं हो कहीं ऐसा न हो जाए
जो होना हो अभी ऐ जुरअत-ए-रिंदाना हो जाए
ब-ज़ाहिर सादगी से मुस्कुरा कर देखने वालो
कोई कम-बख़्त ना-वाक़िफ़ अगर दीवाना हो जाए
बहुत ही ख़ूब शय है इख़्तियारी शान-ए-ख़ुद्दारी
अगर मा'शूक़ भी कुछ और बे-परवा न हो जाए
इरादे बाँधता हूँ सोचता हूँ तोड़ देता हूँ
कहीं ऐसा न हो जाए कहीं ऐसा न हो जाए
इलाही दिल-नवाज़ी फिर करें वो मय-फ़रोश आँखें
इलाही इत्तिहाद-ए-शीशा-ओ-पैमाना हो जाए
मिरी उल्फ़त तअ'ज्जुब हो गई तौबा मआ'ज़-अल्लाह
कि मुँह से भी न निकले बात और अफ़्साना हो जाए
ये तन्हाई का आलम चाँद तारों की ये ख़ामोशी
'हफ़ीज़' अब लुत्फ़ है इक नारा-ए-मस्ताना हो जाए
ग़ज़ल
निगाह-ए-आरज़ू-आमोज़ का चर्चा न हो जाए
हफ़ीज़ जालंधरी