जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ
वहीं डूबा हुआ पाया गया हूँ
ब-हाल-ए-गुमरही पाया गया हूँ
हरम से दैर में लाया गया हूँ
बला काफ़ी न थी इक ज़िंदगी की
दोबारा याद फ़रमाया गया हूँ
ब-रंग-ए-लाला-ए-वीराना बेकार
खिलाया और मुरझाया गया हूँ
अगरचे अब्र-ए-गौहर-बार हूँ मैं
मगर आँखों से बरसाया गया हूँ
सुपुर्द-ए-ख़ाक ही करना था मुझ को
तो फिर काहे को नहलाया गया हूँ
फ़रिश्ते को न मैं शैतान समझा
नतीजा ये कि बहकाया गया हूँ
कोई सनअत नहीं मुझ में तो फिर क्यूँ
नुमाइश-गाह में लाया गया हूँ
ब-क़ौल-ए-बरहमन क़हर-ए-ख़ुदा हूँ
बुतों के हुस्न पर ढाया गया हूँ
मुझे तो इस ख़बर ने खो दिया है
सुना है मैं कहीं पाया गया हूँ
'हफ़ीज़' अहल-ए-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ
ग़ज़ल
जहाँ क़तरे को तरसाया गया हूँ
हफ़ीज़ जालंधरी