उस ने जब दरवाज़ा मुझ पर बंद किया
मुझ पर उस की महफ़िल के आदाब खुले
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
यारों ने मेरी राह में दीवार खींच कर
मशहूर कर दिया कि मुझे साया चाहिए
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
ये दौर है जो तुम्हारा रहेगा ये भी नहीं
कोई ज़माना था मेरा गुज़र गया वो भी
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
ये लोग किस की तरफ़ देखते हैं हसरत से
वो कौन है जो समुंदर के पार रहता है
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
यूँही बुनियाद का दर्जा नहीं मिलता किसी को
खड़ी की जाएगी मुझ पर अभी दीवार कोई
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
ज़बान अपनी बदलने पे कोई राज़ी नहीं
वही जवाब है उस का वही सवाल मिरा
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
एक दिन दरिया मकानों में घुसा
और दीवारें उठा कर ले गया
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
मिरी नज़र तिरे दीदार को तरसती है
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
अब जो आज़ाद हुए हैं तो ख़याल आया है
कि हमें क़ैद भली थी तो सज़ा कैसी थी
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही