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ग़ुलाम मुर्तज़ा राही शायरी | शाही शायरी

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही शेर

47 शेर

अब मिरे गिर्द ठहरती नहीं दीवार कोई
बंदिशें हार गईं बे-सर-ओ-सामानी से

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




ऐ मिरे पायाब दरिया तुझ को ले कर क्या करूँ
नाख़ुदा पतवार कश्ती बादबाँ रखते हुए

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




अपनी क़िस्मत का बुलंदी पे सितारा देखूँ
ज़ुल्मत-ए-शब में यही एक नज़ारा देखूँ

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




अपनी तस्वीर के इक रुख़ को निहाँ रखता है
ये चराग़ अपना धुआँ जाने कहाँ रखता है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




चाहता है वो कि दरिया सूख जाए
रेत का व्यापार करना चाहता है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




चले थे जिस की तरफ़ वो निशान ख़त्म हुआ
सफ़र अधूरा रहा आसमान ख़त्म हुआ

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




देखने सुनने का मज़ा जब है
कुछ हक़ीक़त हो कुछ फ़साना हो

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




दिल ने तमन्ना की थी जिस की बरसों तक
ऐसे ज़ख़्म को अच्छा कर के बैठ गए

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




दूसरा कोई तमाशा न था ज़ालिम के पास
वही तलवार थी उस की वही सर था मेरा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही