EN اردو
फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है | शाही शायरी
faraKH-dast ka ye husn-e-tang-dasti hai

ग़ज़ल

फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

;

फ़राख़-दस्त का ये हुस्न-ए-तंग-दस्ती है
जो एक बूँद की मानिंद बहर-ए-हस्ती है

वो जिस को नापिए तो ठहरती नहीं है कहीं
इसी ज़मीन पे कुल काएनात बस्ती है

घटा तो झूम के आती है आए दिन लेकिन
जहाँ बरसना हो कम कम वहाँ बरसती है

ज़मीन करती है मुझ को इशारा-ए-पर्वाज़
मिरी तमाम बुलंदी रहीन-ए-पस्ती है

अब और देर न कर हश्र बरपा करने में
मिरी नज़र तिरे दीदार को तरसती है

जो गिर्द-ओ-पेश से मैं बे-नियाज़ हूँ 'राही'
इसी में होश है मिरा इसी में मस्ती है