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ग़ुलाम मुर्तज़ा राही शायरी | शाही शायरी

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही शेर

47 शेर

आता था जिस को देख के तस्वीर का ख़याल
अब तो वो कील भी मिरी दीवार में नहीं

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




एक इक लफ़्ज़ से मअनी की किरन फूटती है
रौशनी में पढ़ा जाता है सहीफ़ा मेरा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




गर्मियों भर मिरे कमरे में पड़ा रहता है
देख कर रुख़ मुझे सूरज का ये घर लेना था

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




हम-सरी उन की जो करना चाहे
उस को सूली पर चढ़ा देते हैं

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




हर एक साँस मुझे खींचती है उस की तरफ़
ये कौन मेरे लिए बे-क़रार रहता है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




हिसार-ए-जिस्म मिरा तोड़-फोड़ डालेगा
ज़रूर कोई मुझे क़ैद से छुड़ा लेगा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




हुस्न-ए-अमल में बरकतें होती हैं बे-शुमार
पत्थर भी तोड़िए तो सलीक़े से तोड़िए

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




जैसे कोई काट रहा है जाल मिरा
जैसे उड़ने वाला कोई परिंदा है

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही




झाँकता भी नहीं सूरज मिरे घर के अंदर
बंद भी कोई दरीचा नहीं रहने देता

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही