सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
मिरी जान आज का ग़म न कर कि न जाने कातिब-ए-वक़्त ने
किसी अपने कल में भी भूल कर कहीं लिख रखी हों मसर्रतें
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नहीं शिकायत-ए-हिज्राँ कि इस वसीले से
हम उन से रिश्ता-ए-दिल उस्तुवार करते रहे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फिर नज़र में फूल महके दिल में फिर शमएँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़