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फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे | शाही शायरी
phir harif-e-bahaar ho baiThe

ग़ज़ल

फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे
जाने किस किस को आज रो बैठे

थी मगर इतनी राएगाँ भी न थी
आज कुछ ज़िंदगी से खो बैठे

तेरे दर तक पहुँच के लौट आए
इश्क़ की आबरू डुबो बैठे

सारी दुनिया से दूर हो जाए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे

न गई तेरी बे-रुख़ी न गई
हम तिरी आरज़ू भी खो बैठे

'फ़ैज़' होता रहे जो होना है
शेर लिखते रहा करो बैठे