आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
कौन मेरी ही अदालत में बुलाता है मुझे
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
शायद ख़्वाबों में भी ख़ाली पैमाने टकराएँ लोग
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
तुम गए वक़्त की मानिंद गँवा दो मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
और नहीं कुछ तो कोई मार ही डाले मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर
मुझे अंदर से फूंके दे रही है रौशनी मेरी
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
हवाएँ बेचते नीलाम रंग-ओ-बू करते
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उसे रुला तो गया कम से कम धुआँ मेरा
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने
सवेरे तक कहीं पहुँचेंगे अब अपने बराबर हम
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा