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अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा शायरी | शाही शायरी

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा शेर

75 शेर

शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
बे-ख़बर सोए हुए अपने मकानों में मिले

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
देखने वालों ने देखा भी न छू कर मुझ को

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
उँगलियों से तिरी तस्वीर बनी पाई गई

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
इक शिकन और मिरे माथे पे बना देता है

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के
जो अपनी ख़ैरियत चाहे वो बस्ती से निकल जाए

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
कि पल भर में मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई मुझ पर

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
बहुत मिलता हुआ था ज़िंदगी से ज़ाइक़ा मेरा

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




निकल पड़े न कहीं अपनी आड़ से कोई
तमाम उम्र का पर्दा न तोड़ दे कोई

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा