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ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को | शाही शायरी
zara mushkil se samjhenge hamare tarjuman hum ko

ग़ज़ल

ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

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ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
अभी दोहरा रही है ख़ुद हमारी दास्ताँ हम को

किसी को क्या ख़बर पत्थर के पैरों पर खड़े हैं हम
सदाओं पर सदाएँ दे रहे हैं कारवाँ हम को

हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
तो बढ़ के ज़िंदगी ने पेश कीं बैसाखियाँ हम को

सँभाला होश जब हम ने तो कुछ मुख़्लिस अज़ीज़ों ने
कई चेहरे दिए और एक पत्थर की ज़बाँ हम को

उठा है शोर ख़ुद अपने ही अंदर से मगर अक्सर
दहल के बंद कर लेना पड़ी हैं खिड़कियाँ हम को

हम अपने जिस्म में बिखरे हुए हैं रेत की सूरत
समेटेंगी कहाँ तक ज़िंदगी की मुट्ठियाँ हम को

बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को