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अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा शायरी | शाही शायरी

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा शेर

75 शेर

गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मैं अब जागी हूँ जब फल खो चुके हैं ज़ाइक़ा अपना

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
किसी ने लिख दिया है ताक़-ए-निस्याँ पर पता अपना

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
ग़ौर करते हैं तो उस का कोई चेहरा भी नहीं

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने
सवेरे तक कहीं पहुँचेंगे अब अपने बराबर हम

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उसे रुला तो गया कम से कम धुआँ मेरा

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
हवाएँ बेचते नीलाम रंग-ओ-बू करते

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर
मुझे अंदर से फूंके दे रही है रौशनी मेरी

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा




बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा