किस दर्जा मिरे शहर की दिलकश है फ़ज़ा भी
मानूस हर इक चीज़ है मिट्टी भी हवा भी
अतहर नादिर
आदमी का अमल से रिश्ता है
काम आता नहीं नसब कुछ भी
अतहर नादिर
जो देखता हूँ ज़माने की ना-शनासी को
ये सोचता हूँ कि अच्छा था बे-हुनर रहता
अतहर नादिर
जो देखिए तो ज़माना है तेज़-रौ कितना
तुलू-ए-सुब्ह अभी है तो वक़्त-ए-शाम अभी
अतहर नादिर
जब भी मिलता है मुस्कुराता है
ख़्वाह उस का हो अब सबब कुछ भी
अतहर नादिर
हो गई शाम ढल गया सूरज
दिन को शब में बदल गया सूरज
अतहर नादिर
ग़म-गुसारी के लिए अब नहीं आता है कोई
ज़ख़्म भर जाने का इम्काँ न हुआ था सो हुआ
अतहर नादिर
दिल ने गो लाख ये चाहा कि भुला दूँ तुझ को
याद ने तेरी मगर आज भी मारा शब-ख़ूँ
अतहर नादिर
देखो तो हर इक रंग से मिलता है मिरा रंग
सोचो तो हर इक बात है औरों से जुदा भी
अतहर नादिर