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किस दर्जा मिरे शहर की दिलकश है फ़ज़ा भी | शाही शायरी
kis darja mere shahar ki dilkash hai faza bhi

ग़ज़ल

किस दर्जा मिरे शहर की दिलकश है फ़ज़ा भी

अतहर नादिर

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किस दर्जा मिरे शहर की दिलकश है फ़ज़ा भी
मानूस हर इक चीज़ है मिट्टी भी हवा भी

देखो तो हर इक रंग से मिलता है मिरा रंग
सोचो तो हर इक बात है औरों से जुदा भी

यूँ तो मिरे हालात से वाक़िफ़ है ज़माना
लेकिन मुझे मिलता नहीं कुछ अपना पता भी

साए की तरह साथ रहा करता है इक शख़्स
साया कि हुआ करता है अपनों से जुदा भी

फिर ज़ख़्म-ए-तमन्ना के नए फूल खिले हैं
ख़ुश्बू तिरी ले आई है फिर मौज-ए-सबा भी

हर आन बदलती हुई दुनिया है ये 'नादिर'
याँ दिल के लगाने की नहीं है कोई जा भी