हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता
ख़याल उस का हमें भी तो उम्र-भर रहता
जिसे भी ख़्वाहिश-ए-दीवार-ओ-दर हो सहरा में
वो कम-नसीब तो अच्छा था अपने घर रहता
हवा से टूट के गिरना मिरा मुक़द्दर था
कि ज़र्द पत्ता था क्यूँकर मैं शाख़ पर रहता
जो देखता हूँ ज़माने की ना-शनासी को
ये सोचता हूँ कि अच्छा था बे-हुनर रहता
हमारी वज्ह से होती न तेरी रुस्वाई
हमारे साथ अगर तू न इस क़दर रहता
तज़ाद क़ौल-ओ-अमल में हो जिस के ऐ 'नादिर'
वो शख़्स कैसे निगाहों में मो'तबर रहता

ग़ज़ल
हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता
अतहर नादिर