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हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता | शाही शायरी
hamare haal se koi jo ba-KHabar rahta

ग़ज़ल

हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता

अतहर नादिर

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हमारे हाल से कोई जो बा-ख़बर रहता
ख़याल उस का हमें भी तो उम्र-भर रहता

जिसे भी ख़्वाहिश-ए-दीवार-ओ-दर हो सहरा में
वो कम-नसीब तो अच्छा था अपने घर रहता

हवा से टूट के गिरना मिरा मुक़द्दर था
कि ज़र्द पत्ता था क्यूँकर मैं शाख़ पर रहता

जो देखता हूँ ज़माने की ना-शनासी को
ये सोचता हूँ कि अच्छा था बे-हुनर रहता

हमारी वज्ह से होती न तेरी रुस्वाई
हमारे साथ अगर तू न इस क़दर रहता

तज़ाद क़ौल-ओ-अमल में हो जिस के ऐ 'नादिर'
वो शख़्स कैसे निगाहों में मो'तबर रहता