EN اردو
असरार-उल-हक़ मजाज़ शायरी | शाही शायरी

असरार-उल-हक़ मजाज़ शेर

33 शेर

कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना

असरार-उल-हक़ मजाज़




इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम

असरार-उल-हक़ मजाज़




इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
हुस्न ख़ुद बे-ताब है जल्वा दिखाने के लिए

love is needlessly defamed that for vision it is keen
beauty is impatient too for its splendour to be seen

असरार-उल-हक़ मजाज़




इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए

असरार-उल-हक़ मजाज़




हुस्न को शर्मसार करना ही
इश्क़ का इंतिक़ाम होता है

असरार-उल-हक़ मजाज़




हिन्दू चला गया न मुसलमाँ चला गया
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया

असरार-उल-हक़ मजाज़




हिज्र में कैफ़-ए-इज़्तिराब न पूछ
ख़ून-ए-दिल भी शराब होना था

असरार-उल-हक़ मजाज़




हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके
याँ हम ने ज़बाँ ही खोली थी वाँ आँख झुकी शरमा भी गए

असरार-उल-हक़ मजाज़




डुबो दी थी जहाँ तूफ़ाँ ने कश्ती
वहाँ सब थे ख़ुदा क्या ना-ख़ुदा क्या

असरार-उल-हक़ मजाज़