साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
इश्क़ शादमाँ अपना शौक़ कामराँ अपना
आह बे-असर किस की नाला ना-रसा किस का
काम बार-हा आया जज़्बा-ए-निहाँ अपना
कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना
उलझनों से घबराए मय-कदे में दर आए
किस क़दर तन-आसाँ है ज़ौक़-ए-राएगाँ अपना
कुछ न पूछ ऐ हमदम इन दिनों मिरा आलम
मुतरिब-ए-हसीं अपना साक़ी-ए-जवाँ अपना
इश्क़ और रुस्वाई कौन सी नई शय है
इश्क़ तो अज़ल से था रुस्वा-ए-जहाँ अपना
तुम 'मजाज़' दीवाने मस्लहत से बेगाने
वर्ना हम बना लेते तुम को राज़-दाँ अपना
ग़ज़ल
साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
असरार-उल-हक़ मजाज़