तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए 
इस सई-ए-करम को क्या कहिए बहला भी गए तड़पा भी गए 
हम अर्ज़-ए-वफ़ा भी कर न सके कुछ कह न सके कुछ सुन न सके 
याँ हम ने ज़बाँ ही खोली थी वाँ आँख झुकी शरमा भी गए 
आशुफ़्तगी-ए-वहशत की क़सम हैरत की क़सम हसरत की क़सम 
अब आप कहें कुछ या न कहें हम राज़-ए-तबस्सुम पा भी गए 
रूदाद-ए-ग़म-ए-उल्फ़त उन से हम क्या कहते क्यूँकर कहते 
इक हर्फ़ न निकला होंटों से और आँख में आँसू आ भी गए 
अरबाब-ए-जुनूँ पर फ़ुर्क़त में अब क्या कहिए क्या क्या गुज़री 
आए थे सवाद-ए-उल्फ़त में कुछ खो भी गए कुछ पा भी गए 
ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है क्यूँ फ़िक्र है तुझ को ऐ साक़ी 
महफ़िल तो तिरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए 
इस महफ़िल-ए-कैफ़-ओ-मस्ती में इस अंजुमन-ए-इरफ़ानी में 
सब जाम-ब-कफ़ बैठे ही रहे हम पी भी गए छलका भी गए
        ग़ज़ल
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
असरार-उल-हक़ मजाज़

