मोहब्बत के इक़रार से शर्म कब तक
कभी सामना हो तो मजबूर कर दूँ
अख़्तर शीरानी
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मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं
अमीर मीनाई
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शर्म भी इक तरह की चोरी है
वो बदन को चुराए बैठे हैं
अनवर देहलवी
जाम ले कर मुझ से वो कहता है अपने मुँह को फेर
रू-ब-रू यूँ तेरे मय पीने से शरमाते हैं हम
ग़मगीन देहलवी
शब-ए-वस्ल क्या जाने क्या याद आया
वो कुछ आप ही आप शर्मा रहे हैं
जावेद लख़नवी
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हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल
किसे देख कर आप शरमाइएगा
जिगर मुरादाबादी
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उस हुस्न का शेवा है जब इश्क़ नज़र आए
पर्दे में चले जाना शरमाए हुए रहना
मुनीर नियाज़ी
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