पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं
अमीर मीनाई
क्या ख़बर मुझ को ख़िज़ाँ क्या चीज़ है कैसी बहार
आँखें खोलीं आ के मैं ने ख़ाना-ए-सय्याद में
अमीरुल्लाह तस्लीम
ख़िज़ाँ का भेस बना कर बहार ने मारा
मुझे दो-रंगी-ए-लैल-ओ-नहार ने मारा
आरज़ू लखनवी
ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
चमन वालों को नींद आती नहीं है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
रानाई-ए-बहार पे थे सब फ़रेफ़्ता
अफ़सोस कोई महरम-ए-राज़-ए-ख़िज़ाँ न था
हबीब अहमद सिद्दीक़ी
गुलों का दौर है बुलबुल मज़े बहार में लूट
ख़िज़ाँ मचाएगी आते ही इस दयार में लूट
हबीब मूसवी
अफ़्सुर्दगी भी हुस्न है ताबिंदगी भी हुस्न
हम को ख़िज़ाँ ने तुम को सँवारा बहार ने
इज्तिबा रिज़वी