अगर शुऊर न हो तो बहिश्त है दुनिया
बड़े अज़ाब में गुज़री है आगही के साथ
सहबा अख़्तर
बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा
सहबा अख़्तर
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
इस डगर को भी कोई राही दे
सहबा अख़्तर
हमें ख़बर है ज़न-ए-फ़ाहिशा है ये दुनिया
सो हम भी साथ इसे बे-निकाह रखते हैं
सहबा अख़्तर
मैं उसे समझूँ न समझूँ दिल को होता है ज़रूर
लाला ओ गुल पर गुमाँ इक अजनबी तहरीर का
सहबा अख़्तर
मेरे सुख़न की दाद भी उस को ही दीजिए
वो जिस की आरज़ू मुझे शाएर बना गई
सहबा अख़्तर
मिरी तन्हाइयों को कौन समझे
मैं साया हूँ मगर ख़ुद से जुदा हूँ
सहबा अख़्तर
'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
तेज़ हवा से लहर तो इक जौहड़ में भी आ जाती है
सहबा अख़्तर
शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सूरत न दे यक़ीन की इस एहतिमाल को
सहबा अख़्तर