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गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है | शाही शायरी
gunj mere gambhir KHayalon ki mujhse Takraati hai

ग़ज़ल

गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है

सहबा अख़्तर

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गूँज मिरे गम्भीर ख़यालों की मुझ से टकराती है
आँखें बंद करूँ या खोलूँ बिजली कौंदे जाती है

तन्हाई के दश्त से गुज़रो तो मुमकिन है तुम भी सुनो
सन्नाटे की चीख़ जो मेरे कानों को पथराती है

कल इक नीम-शगुफ़्ता जिस्म के क़ुर्ब से मुझ पर टूट पड़ी
आधी रात को अध-खिली कलियों से जो ख़ुश-बू आती है

सूने घरों में रहने वाले कुंदनी चेहरे कहते हैं
सारी सारी रात अकेले-पन की आग जलाती है

'सहबा' साहब दरिया हो तो दरिया जैसी बात करो
तेज़ हवा से लहर तो इक जौहड़ में भी आ जाती है