फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे
जिस की वो ज़ुल्फ़ भी गवाही दे
बे-अमाँ नीम-जाँ हूँ मेरी जाँ
मुझ को आग़ोश-ए-जाँ-पनाही दे
अपनी ज़ुल्फ़ों के साए में मुझ को
एक शब की सितारा-जाही दे
दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
इस डगर को भी कोई राही दे
मैं ने तामीर क़स्र-ए-शौक़ किया
तू इसे मुज़्दा-ए-तबाही दे
बख़्शने वाले गुल-रुख़ों को जमाल
मुझ को सामान-ए-ख़ुश-निगाही दे
मैं असीर-ए-गुमान-ए-ज़ुल्मत हूँ
ए'तिमाद-ए-सहर-ए-निगाही दे
मुजरिम-ए-इश्क़ हूँ मुझे 'सहबा'
जो सज़ा दे वो बे-गुनाही दे
ग़ज़ल
फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे
सहबा अख़्तर