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फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे | शाही शायरी
fard-e-isyan ko wo siyahi de

ग़ज़ल

फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे

सहबा अख़्तर

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फ़र्द-ए-इसयाँ को वो सियाही दे
जिस की वो ज़ुल्फ़ भी गवाही दे

बे-अमाँ नीम-जाँ हूँ मेरी जाँ
मुझ को आग़ोश-ए-जाँ-पनाही दे

अपनी ज़ुल्फ़ों के साए में मुझ को
एक शब की सितारा-जाही दे

दिल के उजड़े नगर को कर आबाद
इस डगर को भी कोई राही दे

मैं ने तामीर क़स्र-ए-शौक़ किया
तू इसे मुज़्दा-ए-तबाही दे

बख़्शने वाले गुल-रुख़ों को जमाल
मुझ को सामान-ए-ख़ुश-निगाही दे

मैं असीर-ए-गुमान-ए-ज़ुल्मत हूँ
ए'तिमाद-ए-सहर-ए-निगाही दे

मुजरिम-ए-इश्क़ हूँ मुझे 'सहबा'
जो सज़ा दे वो बे-गुनाही दे