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सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा | शाही शायरी
sawal-e-subh-e-chaman zulmat-e-KHizan se uTha

ग़ज़ल

सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा

सहबा अख़्तर

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सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
ये नफ़अ कम तो नहीं है जो इस ज़ियाँ से उठा

सफ़ीना-रानी-ए-महताब देखता कोई
कि इक तलातुम-ए-ज़ौ जू-ए-कहकहशाँ से उठा

ग़ुबार-ए-माह कि मक़्सूम था ख़लाओं का
बिखर गया तो तिरे संग-ए-आस्ताँ से उठा

ग़म-ए-ज़माना तिरे नाज़ क्या उठाऊँगा
कि नाज़-ए-दोस्त भी कम मुझ से सरगिराँ से उठा

मिरे हबीब बहुत कम-सबात है दुनिया
मिरे हबीब बस अब हाथ इम्तिहाँ से उठा

बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा

कहाँ चले हो लिए नक़्द-ए-जान-ओ-दिल 'सहबा'
कि कारोबार-ए-वफ़ा शहर-ए-दिल-बराँ से उठा