सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
ये नफ़अ कम तो नहीं है जो इस ज़ियाँ से उठा
सफ़ीना-रानी-ए-महताब देखता कोई
कि इक तलातुम-ए-ज़ौ जू-ए-कहकहशाँ से उठा
ग़ुबार-ए-माह कि मक़्सूम था ख़लाओं का
बिखर गया तो तिरे संग-ए-आस्ताँ से उठा
ग़म-ए-ज़माना तिरे नाज़ क्या उठाऊँगा
कि नाज़-ए-दोस्त भी कम मुझ से सरगिराँ से उठा
मिरे हबीब बहुत कम-सबात है दुनिया
मिरे हबीब बस अब हाथ इम्तिहाँ से उठा
बयान-ए-लग़्ज़िश-ए-आदम न कर कि वो फ़ित्ना
मिरी ज़मीं से नहीं तेरे आसमाँ से उठा
कहाँ चले हो लिए नक़्द-ए-जान-ओ-दिल 'सहबा'
कि कारोबार-ए-वफ़ा शहर-ए-दिल-बराँ से उठा
ग़ज़ल
सवाल-ए-सुब्ह-ए-चमन ज़ुल्मत-ए-ख़िज़ाँ से उठा
सहबा अख़्तर