अँधेरी शाम थी बादल बरस न पाए थे 
वो मेरे पास न था और मैं खुल के रोया था
मोहम्मद इज़हारुल हक़
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                घिरा हुआ हूँ जनम-दिन से इस तआक़ुब में 
ज़मीन आगे है और आसमाँ मिरे पीछे
मोहम्मद इज़हारुल हक़
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                कोई ज़ारी सुनी नहीं जाती कोई जुर्म मुआफ़ नहीं होता 
इस धरती पर इस छत के तले कोई तेरे ख़िलाफ़ नहीं होता
मोहम्मद इज़हारुल हक़
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                तिरा पाँव शाम पे आ गया था कि चाँद था 
तिरा हिज्र सुब्ह को जल उठा था कि फूल था
मोहम्मद इज़हारुल हक़
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