कोई ज़ारी सुनी नहीं जाती कोई जुर्म मुआफ़ नहीं होता
इस धरती पर इस छत के तले कोई तेरे ख़िलाफ़ नहीं होता
कभी दमकें सोने के ज़र्रे कभी झलके मुर्ग़ाबी का लहू
कई प्यासे कब से खड़े हैं मगर पानी शफ़्फ़ाफ़ नहीं होता
कोई ज़ुल्फ़ अड़े तो बिखर जाना कोई लब दहकें तो ठिठुर जाना
क्या तज़किया करते हो दिल का ये आइना साफ़ नहीं होता
कई मौसम मुझ पर गुज़र गए एहराम के इन दो कपड़ों में
कभी पत्थर चूम नहीं सकता कभी इज़्न-ए-तवाफ़ नहीं होता
यहाँ ताज उस के सर पर होगा जो तड़के शहर में दाख़िल हो
यहाँ साया हुमा का नहीं पड़ता यहाँ कोह-ए-क़ाफ़ नहीं होता
ग़ज़ल
कोई ज़ारी सुनी नहीं जाती कोई जुर्म मुआफ़ नहीं होता
मोहम्मद इज़हारुल हक़