बस एक रात मिरे घर में चाँद उतरा था
फिर इस के बाद वही मैं वही अंधेरा था
सबा का नर्म सा झोंका था या बगूला था
वो क्या था जिस ने मुझे मुद्दतों रुलाया था
अजब उठान लिए था वो ग़ैरत-ए-शमशाद
तबाह-हाल दिलों का कहाँ ठिकाना था
अँधेरी शाम थी बादल बरस न पाए थे
वो मेरे पास न था और मैं खुल के रोया था
ज़मीं में दफ़्न मुझे कर गया है जीते-जी
तो क्या मैं उस के लिए क़ीमती ख़ज़ीना था
झुलस झुलस के मैं अंजाम-कार डूब गया
वो था सराब मगर पानियों सा गहरा था
निशाँ कहीं भी न थे उस की उँगलियों के मगर
मैं घर की देख के एक एक चीज़ रोया था
जले तो साथ जलेंगी ये झाड़ियाँ 'इज़हार'
किसी के शहर में तो दर्द यूँ न बटता था
ग़ज़ल
बस एक रात मिरे घर में चाँद उतरा था
मोहम्मद इज़हारुल हक़