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पड़े हुए हैं मिरे जिस्म ओ जाँ मिरे पीछे | शाही शायरी
paDe hue hain mere jism o jaan mere pichhe

ग़ज़ल

पड़े हुए हैं मिरे जिस्म ओ जाँ मिरे पीछे

मोहम्मद इज़हारुल हक़

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पड़े हुए हैं मिरे जिस्म ओ जाँ मिरे पीछे
है एक लश्कर-ए-ग़ारत-गिराँ मिरे पीछे

पस-ए-वफ़ात ये बे-दस्तख़त मिरी तहरीर
नहीं है और कोई भी निशाँ मिरे पीछे

मिरे मुलाज़िम ओ ख़रगाह अस्प और शतरंज
सब आएँ नज़्म से मातम-कुनाँ मिरे पीछे

गुज़र रही है अंधेरे में उस बदन पर क्या
न खुल सकेगी यही चीसताँ मिरे पीछे

उठी हुई मिरे सर पर अज़ल से है तलवार
खिंची हुई है अबद से कमाँ मिरे पीछे

घिरा हुआ हूँ जनम-दिन से इस तआक़ुब में
ज़मीन आगे है और आसमाँ मिरे पीछे