देखते रहते हैं ख़ुद अपना तमाशा दिन रात
हम हैं ख़ुद अपने ही किरदार के मारे हुए लोग
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
एक दरिया को दिखाई थी कभी प्यास अपनी
फिर नहीं माँगा कभी मैं ने दोबारा पानी
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
हरीम-ए-दिल में ठहर या सरा-ए-जान में रुक
ये सब मकान हैं तेरे किसी मकान में रुक
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
जश्न होता है वहाँ रात ढले
वो जो इक ख़ाली मकाँ है मुझ में
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
ख़ुद अपने क़त्ल का इल्ज़ाम ढो रहा हूँ अभी
मैं अपनी लाश पे सर रख के रो रहा हूँ अभी
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
मैं अधूरा सा हूँ उस के अंदर
और वो शख़्स मुकम्मल मुझ में
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
मैं ही आईना-ए-दुनिया में चला आया हूँ
या चली आई है दुनिया मिरे आईने में
मिर्ज़ा अतहर ज़िया
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
लेकिन तेरे आगे सब कुछ पत्थर है
मिर्ज़ा अतहर ज़िया