कोई बगूला रक़्साँ मेरे अंदर है
दिल-सहरा में जश्न के जैसा मंज़र है
मैं ने कैसे कैसे मोती ढूँडे हैं
लेकिन तेरे आगे सब कुछ पत्थर है
बॉलकनी पर आओ मेरी पलकों की
देखो कितना गहरा नीला समुंदर है
ख़ामोशी से मार न दे इक दिन मुझ को
शोर सा इक जो मेरी ज़ात के अंदर है
चाहे जो भी खिड़की में खोलूँ 'अतहर'
सब के बाहर एक ही जैसा मंज़र है

ग़ज़ल
कोई बगूला रक़्साँ मेरे अंदर है
मिर्ज़ा अतहर ज़िया