कोई दरिया भी रवाँ है मुझ में
सिर्फ़ सहरा ही कहाँ है मुझ में
क्या पता जाने कहाँ आग लगी
हर तरफ़ सिर्फ़ धुआँ है मुझ में
जश्न होता है वहाँ रात ढले
वो जो इक ख़ाली मकाँ है मुझ में
अजनबी हो गईं गलियाँ मेरी
जाने अब कौन कहाँ है मुझ में
एक दिन था जो कहीं डूब गया
एक शब है कि जवाँ है मुझ में
तुम जिसे ढूँड रहे हो 'अतहर'
अब वो इंसान कहाँ है मुझ में

ग़ज़ल
कोई दरिया भी रवाँ है मुझ में
मिर्ज़ा अतहर ज़िया