जो कभी दीवार पे लटकाई थी
अब तिरे कमरे की ज़ीनत भी नहीं
मंसूर ख़ुशतर
किसी से सरगुज़िश्त-ए-ग़म बयाँ करता हूँ जब अपनी
कहानी वो सरासर आप की मालूम होती है
मंसूर ख़ुशतर
नाज़-ओ-अंदाज़ की क़ीमत है तिरे मेरे सबब
किस की महफ़िल में भला और ग़ज़ब ढाओगे
मंसूर ख़ुशतर
तवज्जोह आप फ़रमाएँ अगर तो
कुछ हम भी अर्ज़ करना चाहते हैं
मंसूर ख़ुशतर
था जो इक काफ़िर मुसलमाँ हो गया
पल में वीराना गुलिस्ताँ हो गया
मंसूर ख़ुशतर
तिरे जौर-ओ-जफ़ा का हम कभी शिकवा नहीं करते
मोहब्बत जिस से करते हैं उसे रुस्वा नहीं करते
मंसूर ख़ुशतर
यक़ीं कर कि मैं तुझ से भी ज़ियादा चाहता उस को
जो मेरे जैसा तेरा और कोई क़द्र-दाँ होता
मंसूर ख़ुशतर