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जहाँ से अब गुज़रना चाहते हैं | शाही शायरी
jahan se ab guzarna chahte hain

ग़ज़ल

जहाँ से अब गुज़रना चाहते हैं

मंसूर ख़ुशतर

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जहाँ से अब गुज़रना चाहते हैं
कि हम जन्नत में रहना चाहते हैं

तवज्जोह आप फ़रमाएँ अगर तो
कुछ हम भी अर्ज़ करना चाहते हैं

ज़रा तेग़-ए-निगह को तेज़ कीजे
कि हम भी कुछ तड़पना चाहते हैं

छुपा रक्खी जो है वो जाम दे दे
वही पी कर बहकना चाहते हैं

मज़ा आशिक़ को इस में भी है मिलता
जफ़ाएँ तेरी सहना चाहते हैं

हुए हैं तंग इस दुनिया से ऐसे
बिला-ताख़ीर मरना चाहते हैं

वरक़ 'ख़ुशतर' किताब-ए-ज़िंदगी का
कोई ताज़ा उलटना चाहते हैं