वो मेरी बेकसी पर काश थोड़ा मेहरबाँ होता
परेशाँ-हाल हो कर मैं यक़ीनन शादमाँ होता
यक़ीं कर कि मैं तुझ से भी ज़ियादा चाहता उस को
जो मेरे जैसा तेरा और कोई क़द्र-दाँ होता
खरे खोटे का अंदाज़ा तुझे भी कुछ तो लग जाता
रक़ीब-ए-रू-सियह का जो लिया गर इम्तिहाँ होता
न होता दश्त-ओ-वीराना अगर सहरा-ए-बे-पायाँ
ग़रीब आशिक़ कोई आबाद फिर जा कर कहाँ होता
मकाँ इस दौर में पॉकेट एडीशन बनते हैं 'ख़ुशतर'
कोई दालान आँगन और कोई साएबाँ होता
ग़ज़ल
वो मेरी बेकसी पर काश थोड़ा मेहरबाँ होता
मंसूर ख़ुशतर