EN اردو
आप को मुझ से मोहब्बत भी नहीं | शाही शायरी
aapko mujhse mohabbat bhi nahin

ग़ज़ल

आप को मुझ से मोहब्बत भी नहीं

मंसूर ख़ुशतर

;

आप को मुझ से मोहब्बत भी नहीं
और ''नहीं'' कहने की जुरअत भी नहीं

जाते हैं महफ़िल से मेरी जाइए
रोकना कुछ मेरी फ़ितरत भी नहीं

मुनहसिर जिस पे हो मेरी ज़िंदगी
तू ने की ऐसी मोहब्बत भी नहीं

बेवफ़ा की हम-रही से फ़ाएदा?
और अब चलने की हिम्मत भी नहीं

जो कभी दीवार पे लटकाई थी
अब तिरे कमरे की ज़ीनत भी नहीं

मैं किसी को छोड़ दूँ तेरे लिए
तुझ से कुछ ऐसी तो क़ुर्बत भी नहीं

'ख़ुशतर' इस मेहंदी लगे हाथों की अब
जाने क्यूँ पहली सी रंगत भी नहीं