तिरे जौर-ओ-जफ़ा का हम कभी शिकवा नहीं करते
मोहब्बत जिस से करते हैं उसे रुस्वा नहीं करते
हमारे शेवा-ए-तस्लीम की भी क़द्र कर तू कुछ
कि फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ आह-ओ-बुका नाला नहीं करते
मोहब्बत में भी हम मेआर का कुछ पास रखते हैं
किसी हालत में भी ख़ुद्दारी का सौदा नहीं करते
मोहब्बत करने वालों का अलग इक अपना मज़हब है
वो राह-ए-इश्क़ में सूद-ओ-ज़ियाँ देखा नहीं करते
रक़ीबों को सर-ए-महफ़िल जो बाज़ू में बिठाते हैं
दिल-आज़ारी मिरी करते हैं आप अच्छा नहीं करते
है पोशीदा यहाँ भी अपनी इज़्ज़त ही का इक पहलू
किसी से बद-सुलूकी का तिरी चर्चा नहीं करते
गवारा एहतियात ऐसी मोहब्बत में है 'ख़ुशतर' को
कि उस के नाम से मंसूब शेर अपना नहीं करते
ग़ज़ल
तिरे जौर-ओ-जफ़ा का हम कभी शिकवा नहीं करते
मंसूर ख़ुशतर