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अपनी महफ़िल में अगर मुझ को नहीं पाओगे | शाही शायरी
apni mahfil mein agar mujhko nahin paoge

ग़ज़ल

अपनी महफ़िल में अगर मुझ को नहीं पाओगे

मंसूर ख़ुशतर

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अपनी महफ़िल में अगर मुझ को नहीं पाओगे
ऐसे हालात में तुम और भी घबराओगे

शौक़ से जौर-ओ-सितम मुझ पे करो तुम लेकिन
अपनी नादानी पे ख़ुद आप ही पछताओगे

नाज़-ओ-अंदाज़ की क़ीमत है तिरे मेरे सबब
किस की महफ़िल में भला और ग़ज़ब ढाओगे

कोई होगा नहीं इस जिंस-ए-वफ़ा का तालिब
कौन है मेरे सिवा जिस को ये दिखलाओगे

काट लो मेरी ज़बाँ कैसे वफ़ादार कहूँ
हाथ में बाले कड़े पाँव में पहनाओगे

सख़्त दिन अपने इस उम्मीद पे गुज़रे 'ख़ुशतर'
आओगे आओगे अब आओगे अब आओगे