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मजरूह सुल्तानपुरी शायरी | शाही शायरी

मजरूह सुल्तानपुरी शेर

43 शेर

अब कारगह-ए-दहर में लगता है बहुत दिल
ऐ दोस्त कहीं ये भी तिरा ग़म तो नहीं है

मजरूह सुल्तानपुरी




अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम

मजरूह सुल्तानपुरी




ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं

मजरूह सुल्तानपुरी




अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे

मजरूह सुल्तानपुरी




अश्कों में रंग-ओ-बू-ए-चमन दूर तक मिले
जिस दम असीर हो के चले गुल्सिताँ से हम

मजरूह सुल्तानपुरी




बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके

मजरूह सुल्तानपुरी




बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते

मजरूह सुल्तानपुरी




बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते

मजरूह सुल्तानपुरी




बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगाँ
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह

मजरूह सुल्तानपुरी