हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है कि एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
वो तो कहीं है और मगर दिल के आस-पास
फिरती है कोई शय निगह-ए-यार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ पे यूँही कहीं कहीं
ख़म हो गई है गेसू-ए-दिलदार की तरह
बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगाँ
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह
अब जा के कुछ खुला हुनर-ए-नाख़ून-ए-जुनूँ
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह
ग़ज़ल
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
मजरूह सुल्तानपुरी