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मजरूह सुल्तानपुरी शायरी | शाही शायरी

मजरूह सुल्तानपुरी शेर

43 शेर

गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की

मजरूह सुल्तानपुरी




हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए

मजरूह सुल्तानपुरी




हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा
चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा

मजरूह सुल्तानपुरी




हट के रू-ए-यार से तज़ईन-ए-आलम कर गईं
वो निगाहें जिन को अब तक राएगाँ समझा था मैं

मजरूह सुल्तानपुरी




जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की

मजरूह सुल्तानपुरी




जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले

मजरूह सुल्तानपुरी




कहाँ बच कर चली ऐ फ़स्ल-ए-गुल मुझ आबला-पा से
मिरे क़दमों की गुल-कारी बयाबाँ से चमन तक है

मजरूह सुल्तानपुरी